अब इस तरह सितम-ए-रोज़गार होता है
क़फ़स के सामने ज़िक्र-ए-बहार होता है
ख़ुदा के वास्ते दामन का चाक सीने दो
कभी कभी तो जुनूँ होशियार होता है
वफ़ा का ज़िक्र ही क्यूँ छेड़ते हैं अहल-ए-वफ़ा
जब उन की ख़ातिर-ए-नाज़ुक पे बार होता है
वो सामने हों तो आँसू निकल ही जाते हैं
ये जुर्म वो है जो बे-इख़्तियार होता है
मैं मुतमइन हूँ अगरचे ख़राब है माहौल
ख़िज़ाँ के बा'द का आलम बहार होता है
ग़ज़ल
अब इस तरह सितम-ए-रोज़गार होता है
माहिर-उल क़ादरी