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अब इस तरह सितम-ए-रोज़गार होता है | शाही शायरी
ab is tarah sitam-e-rozgar hota hai

ग़ज़ल

अब इस तरह सितम-ए-रोज़गार होता है

माहिर-उल क़ादरी

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अब इस तरह सितम-ए-रोज़गार होता है
क़फ़स के सामने ज़िक्र-ए-बहार होता है

ख़ुदा के वास्ते दामन का चाक सीने दो
कभी कभी तो जुनूँ होशियार होता है

वफ़ा का ज़िक्र ही क्यूँ छेड़ते हैं अहल-ए-वफ़ा
जब उन की ख़ातिर-ए-नाज़ुक पे बार होता है

वो सामने हों तो आँसू निकल ही जाते हैं
ये जुर्म वो है जो बे-इख़्तियार होता है

मैं मुतमइन हूँ अगरचे ख़राब है माहौल
ख़िज़ाँ के बा'द का आलम बहार होता है