अब इस से क्या तुम्हें था या उमीद-वार न था
तुम्हारे वस्ल का तुम से तो ख़्वास्त-गार न था
शराब पीते ही वो खुल गए वो खुल खेले
शब-ए-विसाल में कुछ लुत्फ़-ए-इंतिज़ार न था
न झपकी जब शब-ए-व'अदा पलक तो हम समझे
ये कोई और बला थी ये इंतिज़ार न था
वो तीर आप के तरकश में कौन सा निकला
जो बे-चले भी हमारे जिगर के पार न था
वो मर गया है तो क्या है हमें भी मरना है
ख़ुदा गवाह है 'बेख़ुद' वो शराब-ख़्वार न था
ग़ज़ल
अब इस से क्या तुम्हें था या उमीद-वार न था
बेख़ुद देहलवी