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अब इलाज-ए-दिल-ए-बीमार-ए-सहर हो कि न हो | शाही शायरी
ab ilaj-e-dil-e-bimar-e-sahar ho ki na ho

ग़ज़ल

अब इलाज-ए-दिल-ए-बीमार-ए-सहर हो कि न हो

इक़बाल उमर

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अब इलाज-ए-दिल-ए-बीमार-ए-सहर हो कि न हो
ज़िंदगी साया-ए-गेसू में बसर हो कि न हो

मुझ को रखना ही था आदाब-ए-मोहब्बत का ख़याल
मेरे शाने पे कल उस शोख़ का सर हो कि न हो

आज हर बात मिरी क़ौल-ए-ख़ुदावंदी है
कल मिरी बात पे यूँ जुम्बिश-ए-सर हो कि न हो

जाने किस मोड़ पे ले आई मुझे उम्र-ए-रवाँ
सोचता हूँ ये तिरी राहगुज़र हो कि न हो

क्यूँ न जी भर के अब अश्कों से चराग़ाँ कर लूँ
यूँ कोई रात फिर आँखों में बसर हो कि न हो

साए में जिन के अंधेरों के सिवा कुछ भी नहीं
उन चराग़ों को बुझा दूँगा सहर हो कि न हो

मेरे ग़म-ख़ाने में आते हुए उम्मीद की ज़ौ
पूछती है कि उधर मेरा गुज़र हो कि न हो

आज जो कहना हो ऐ हुस्न ख़ुद-आरा कह ले
कल तिरी बज़्म में 'इक़बाल'-उमर हो कि न हो