अब हर्फ़-ए-तमन्ना को समाअत न मिलेगी
बेचोगे अगर ख़्वाब तो क़ीमत न मिलेगी
तशहीर के बाज़ार में ऐ ताज़ा ख़रीदार
ज़ेबाइशें मिल जाएँगी क़ामत न मिलेगी
लम्हों के तआक़ुब में गुज़र जाएँगी सदियाँ
यूँ वक़्त तो मिल जाएगा मोहलत न मिलेगी
सोचा ही न था यूँ भी उसे याद रखेंगे
जब उस को भुलाने की भी फ़ुर्सत न मिलेगी
ता-उम्र वही कार-ए-ज़ियाँ इश्क़ रहा याद
हालाँकि ये मालूम था उजरत न मिलेगी
ताबीर नज़र आने लगी ख़्वाब की सूरत
अब ख़्वाब ही देखोगे बशारत न मिलेगी
आईना-सिफ़त वक़्त तिरा हुस्न हैं हम लोग
कल आइने तरसेंगे तो सूरत न मिलेगी
ग़ज़ल
अब हर्फ़-ए-तमन्ना को समाअत न मिलेगी
पीरज़ादा क़ासीम