अब घटाएँ सियाह हल्की हैं
रात शायद ये खुल के बरसी हैं
आप सादा-लिबास में भी मुझे
हद से ज़्यादा हसीन लगती हैं
दिल मिरा ख़ानक़ाह हो गोया
धड़कनें तेरा नाम जपती हैं
एक मुद्दत हुई नहीं रोया
मेरी पलकें हनूज़ भीगी हैं
बेवफ़ाई की ये अदाएँ सभी
आप ही से तो हम ने सीखी हैं
अब ये छुटते नज़र नहीं आते
अब्र जो बस्तियों पे तारी हैं
अब सँभलते 'ख़याल-साहब' आप
बचपने की हदें भी होती हैं

ग़ज़ल
अब घटाएँ सियाह हल्की हैं
प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’