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अब ग़म का कोई ग़म न ख़ुशी की ख़ुशी मुझे | शाही शायरी
ab gham ka koi gham na KHushi ki KHushi mujhe

ग़ज़ल

अब ग़म का कोई ग़म न ख़ुशी की ख़ुशी मुझे

अनीस अहमद अनीस

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अब ग़म का कोई ग़म न ख़ुशी की ख़ुशी मुझे
आख़िर को रास आ ही गई ज़िंदगी मुझे

वो क़त्ल कर के मुझ को पशेमाँ हुए तो क्या
लौटा सकेंगे फिर न मिरी ज़िंदगी मुझे

सारे जहाँ में होती है अम्न-ओ-अमाँ की बात
लेकिन नज़र न आई कहीं आश्ती मुझे

नेज़ा उठाए फिरती है हर राह में क़ज़ा
हर मोड़ पर हिरास मिली ज़िंदगी मुझे

मैं घूँट घूँट जाम से बहलाऊँ जी को क्या
बे-ख़ौफ़ काश कर ही दे तिश्ना-लबी मुझे

इक लज़्ज़त-ए-गुनाह थी क्या लज़्ज़त-ए-गुनाह
ता-उम्र रास आई न फिर बंदगी मुझे

कुछ आरज़ू नहीं कि फ़रिश्ता बनूँ 'अनीस'
काफ़ी है हाँ जो लोग कहें आदमी मुझे