अब फ़िराक़-ओ-विसाल बार हुए
उम्र गुज़री है बे-क़रार हुए
इस की बे-ए'तिबारियों के तुफ़ैल
कितने ही गुल यहाँ पे ख़ार हुए
ख़्वाब दो एक ही बचे ज़िंदा
क़त्ल बाक़ी तो बे-शुमार हुए
क्यूँ रहा ग़ैरियत का सा एहसास
जब भी हम उस से कम कनार हुए
मेरे उस के मुआ'मले अब तो
सारे आलम पे आश्कार हुए
कुछ नई ये मलामतें तो नहीं
ऐसे ता'ने तो बार बार हुए
जुर्म क्या है पता नहीं अब तक
हाँ मगर रोज़ संगसार हुए
कितने ही तरहदार हम जैसे
इस ख़राबे में ख़ाकसार हुए
किस क़दर मुब्तला थे हम ख़ुद में
ख़ुद से निकले तो बे-कनार हुए
'मीर'-ओ-'ग़ालिब' की ख़ाक-ए-पा के तुफ़ैल
हम भी किस दर्जा आब-दार हुए

ग़ज़ल
अब फ़िराक़-ओ-विसाल बार हुए
जाफ़र अब्बास