अब दो-आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे 
दिल की आहट से तिरी आवाज़ आती है मुझे 
झाड़ कर गर्द-ए-ग़म-ए-हस्ती को उड़ जाऊँगा मैं 
बे-ख़बर ऐसी भी इक पर्वाज़ आती है मुझे 
या समाअ'त का भरम है या किसी नग़्मे की गूँज 
एक पहचानी हुई आवाज़ आती है मुझे 
किस ने खोला है हवा में गेसुओं को नाज़ से 
नर्म-रौ बरसात की आवाज़ आती है मुझे 
उस की नाज़ुक उँगलियों को देख कर अक्सर 'अदम' 
एक हल्की सी सदा-ए-साज़ आती है मुझे
 
        ग़ज़ल
अब दो-आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे
अब्दुल हमीद अदम

