अब दिमाग़-ओ-दिल में वो क़ुव्वत नहीं वो दिल नहीं
'शाद' अब अशआ'र मेरे दर-ख़ुर-ए-महफ़िल नहीं
तू मिरे अश्क-ए-नदामत की हक़ीक़त कुछ न पूछ
उस का हर क़तरा वो दरिया है जहाँ साहिल नहीं
घर ख़ुदा का था मगर बुत इस में आ कर बस गए
अब मुरक़्क़ा' है हसीनों का हमारा दिल नहीं
नुक्ता-चीं हो मेरी रिंदाना रविश पर क्यूँ कोई
मैं कोई ज़ाहिद नहीं वाइज़ नहीं आक़िल नहीं
पर्दा-दारी करती है दर-पर्दा लैला इश्क़ की
जज़्बा-ए-दिल क़ैस का है पर्दा-ए-महमिल नहीं
इंक़लाब-ए-दहर से उल्टा ज़माने का वरक़
अहल-ए-महफ़िल वो नहीं वो रौनक़-ए-महफ़िल नहीं
हिन्द में चलने लगी है अब हवा-ए-इंक़लाब
'शाद' सच है ये जगह रहने के अब क़ाबिल नहीं
साग़र-ए-मय पेश कर के शैख़ कहलाता हूँ मैं
हदिया-ए-अहक़र है ये गो आप के क़ाबिल नहीं
हक़ में अब आशिक़ के देखें फ़ैसला होता है क्या
इश्क़ का दा'वा हुज़ूर-ए-हुस्न तो बातिल नहीं
ग़ज़ल
अब दिमाग़-ओ-दिल में वो क़ुव्वत नहीं वो दिल नहीं
महाराज सर किशन परशाद शाद