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अब अपने देस की आब-ओ-हवा हम को नहीं भाती | शाही शायरी
ab apne des ki aab-o-hawa hum ko nahin bhati

ग़ज़ल

अब अपने देस की आब-ओ-हवा हम को नहीं भाती

जामी रुदौलवी

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अब अपने देस की आब-ओ-हवा हम को नहीं भाती
ग़ुलामी एक ज़िल्लत थी सरापा दर्द आज़ादी

क़यादत करने वालों को मसीहाई का दावा था
किसी ने लेकिन अब तक क़ौम की बीड़ी नहीं काटी

अभी तक पाँव से चिमटी हैं ज़ंजीरें ग़ुलामी की
दिन आ जाता है आज़ादी का आज़ादी नहीं आती

उन्हीं अक़्वाम के रहम-ओ-करम पर अब भी जीते हैं
ग़ुरूर-ए-हुर्रियत ने जिन से हासिल की थी आज़ादी

बजा-ए-फ़िक्र-ए-नौ रजअत-पसंदी आम शेवा है
हक़ीक़त में मुसलमाँ हर जगह है कुश्ता-ए-माज़ी

कराची में मुहाजिर और इंग्लिस्तान में काले
तिरी तक़दीर में 'जामी' लिखी है ख़ाना-बर्बादी