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अब अगर और चुप रहूँगा मैं | शाही शायरी
ab agar aur chup rahunga main

ग़ज़ल

अब अगर और चुप रहूँगा मैं

जहाँगीर नायाब

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अब अगर और चुप रहूँगा मैं
फिर ये तय हे कि फट पड़ूँगा मैं

एक ऐसा भी वक़्त आएगा
तुम सुनोगे फ़क़त कहूँगा मैं

नाज़ उठाऊँगा नाज़ उठाने तक
तेरे आगे नहीं बिछुँगा मैं

देखना तेरी रहबरी के बग़ैर
अपनी मंज़िल तलाश लूँगा मैं

तुम को जाना है शौक़ से जाओ
अब ख़ुशामद नहीं करूँगा मैं

जब कभी तुझ से सामना होगा
अजनबी की तरह मिलूँगा मैं

क्या सबब है मिरी ख़मोशी का
शोर थमने दो फिर कहूँगा मैं

आइना रख के सामने 'नायाब'
पागलों की तरह हँसूँगा मैं