अब आर-पार ध्यान की मशअ'ल कहाँ है ज़ेब
गुंजान दर्द का मिरे अंदर धुआँ है ज़ेब
गाड़े सियाह में है लहू की लपक न लहर
क्यूँ इस क़दर भी नक़्श-ए-नफ़स बे-निशाँ है ज़ेब
क्यूँ बे-असर है मेरी दुआ सहन-ए-सुब्ह में
क्यूँ शब-कदे में मेरी फ़ुग़ाँ राएगाँ है ज़ेब
क्यूँ मुट्ठी-भर सराब से नुक़सान-ए-दश्त है
क्यूँ आँख-भर नमी से चमन का ज़ियाँ है ज़ेब
ग़ज़ल
अब आर-पार ध्यान की मशअ'ल कहाँ है ज़ेब
राजेन्द्र मनचंदा बानी