अब आँख भी मश्शाक़ हुई ज़ेर-ओ-ज़बर की
ख़्वाहिश तो तिरी घाट की रह पाई न घर की
रंग अपने जो थे भर भी कहाँ पाए कभी हम
हम ने तो सदा रद्द-ए-अमल में ही बसर की
जब सिर्फ़ तिरे गुल में मिरा हिस्सा नज़र है
फिर सोच है क्या दर्द ये ताख़ीर नज़र की
ये कूफ़े की गलियाँ हैं कि ये मेरी रगें भी
हर सम्त से चुभती है अनी मुझ को शिमर की

ग़ज़ल
अब आँख भी मश्शाक़ हुई ज़ेर-ओ-ज़बर की
अज़रा परवीन