आया उफ़ुक़ की सेज तक आ कर पलट गया
लेकिन उरूस-ए-शब का वो घुँघट उलट गया
दिल में बसी हैं कितनी तिरे बा'द बस्तियाँ
दरिया था ख़ुश्क हो के जज़ीरों में बट गया
इक शख़्स लौटते हुए कल तेरे शहर से
रो रो के अपने नक़्श-ए-क़दम से लिपट गया
मैं चल रहा हूँ ख़ोल बदन का उतार कर
अब मेरे रास्ते का ये पत्थर भी हट गया
फैली रहेंगी झोलियाँ पलकों की कब तलक
आया था जो उमड के वो बादल तो छट गया
दश्त-ए-नज़र से इतने बगूले उठे 'रशीद'
इक मुस्कुराते चाँद का चेहरा भी अट गया

ग़ज़ल
आया उफ़ुक़ की सेज तक आ कर पलट गया
रशीद क़ैसरानी