आवाज़ों की धुँद से डरता रहता हूँ
तन्हाई में चुप को ओढ़ के बैठा हूँ
अपनी ख़्वाहिश अपनी सोच के बीज लिए
इक अन-देखी ख़्वाब-ज़मीं को ढूँढता हूँ
सामने रख कर गए दिनों का आईना
अपने धुँदले मुस्तक़बिल को देखता हूँ
साहिल साहिल भीगी रेत पे चलता था
सहराओं में टाँगें तोड़ के बैठा हूँ
मेरी सारी सम्तें रात के घेरे में
मैं सुब्हों की ज़ख़्मी आँख का सपना हूँ
अब तो सूरज ओढ़ के बैठूँगा 'क़य्यूम'
मैं इक ठंडे यख़ दरिया से गुज़रा हूँ

ग़ज़ल
आवाज़ों की धुँद से डरता रहता हूँ
क़य्यूम ताहिर