आवाज़ों के जाल बिछाए जाते हैं
खोने वाले अब क्या पाए जाते हैं
अच्छे अच्छे लोगों की क्या पूछते हो
याद किए जाते हैं भुलाए जाते हैं
हँस हँस कर जो फूल खिलाए थे तुम ने
इस मौसम में सब मुरझाए जाते हैं
सूरज जैसे जैसे ढलता जाता है
उस की दीवारों तक साए जाते हैं
रिश्तों पर इक ऐसा वक़्त भी आता है
सुलझा सुलझा कर उलझाए जाते हैं
फिर उस ने राहों में फूल बिछाए हैं
हम जैसे फिर ठोकर खाए जाते हैं
अपने दामन पर हैं 'शकील' अपने आँसू
लोग मगर एहसान जताए जाते हैं
ग़ज़ल
आवाज़ों के जाल बिछाए जाते हैं
शकील ग्वालिआरी