आवाज़ का उस की ज़ेर-ओ-बम कुछ याद रहा कुछ भूल गए
कितना दिलकश था मेरा सनम कुछ याद रहा कुछ भूल गए
किस दर्जा हसीं था वो लम्हा जो क़िस्सा-ए-पारीना है अब
जब उस की नज़र में थे बस हम कुछ याद रहा कुछ भूल गए
गो ऐसे लम्हे कम आए लेकिन हैं वो मेरा सरमाया
कब कब वो हुआ माइल-ब-करम कुछ याद रहा कुछ भूल गए
वो रूठने और मनाने का एहसास अभी तक बाक़ी है
क्या क्या थे उस के क़ौल-ओ-क़सम कुछ याद रहा कुछ भूल गए
वो ख़्वाब दिखाता था मुझ को मैं इस पे भरोसा करता था
क़ाइम न रहा वा'दों का भरम कुछ याद रहा कुछ भूल गए
आए हो अभी जाते हो कहाँ इस का ये कहना अभी आया
कर देना मिरी फिर नाक में दम कुछ याद रहा कुछ भूल गए
ये भूली-बिसरी यादें हैं सरमाया-ए-जीस्त मिरा 'बर्क़ी'
किस तरह करूँ में इस को रक़म कुछ याद रहा कुछ भूल गए
ग़ज़ल
आवाज़ का उस की ज़ेर-ओ-बम कुछ याद रहा कुछ भूल गए
अहमद अली बर्क़ी आज़मी