आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था
दरिया जो मुंजमिद है कभी मौजज़न भी था
मैं अपनी ख़्वाहिशों से वफ़ादार था सो हूँ
ग़म वर्ना दिल-ख़राश भी ख़्वाहिश-शिकन भी था
काले ख़मोश पानी को एहसास तक नहीं
चेहरे पे मरने वाले के इक बाँकपन भी था
किस तरह महर ओ माह को करते अलग 'फ़ुज़ैल'
शोला-नफ़स जो था वही गुल-पैरहन भी था
ग़ज़ल
आतिश-फ़िशाँ ज़बाँ ही नहीं थी बदन भी था
फ़ुज़ैल जाफ़री