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आतिश-ए-सोज़-ए-मोहब्बत को बुझा सकता हूँ मैं | शाही शायरी
aatish-e-soz-e-mohabbat ko bujha sakta hun main

ग़ज़ल

आतिश-ए-सोज़-ए-मोहब्बत को बुझा सकता हूँ मैं

क़ैसर निज़ामी

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आतिश-ए-सोज़-ए-मोहब्बत को बुझा सकता हूँ मैं
दीदा-ए-पुर-नम से इक दरिया बहा सकता हूँ मैं

हुस्न-ए-बे-परवा तिरा बस इक इशारा चाहिए
मेरी हस्ती क्या है हस्ती को मिटा सकता हूँ मैं

ये तो फ़रमा दीजिए तकमील-ए-उल्फ़त की क़सम
आप को क्या वाक़ई अपना बना सकता हूँ मैं

इश्क़ में रोज़-ए-अज़ल से दिल है पाबंद-ए-वफ़ा
भूलने वाले तुझे क्यूँकर भुला सकता हूँ मैं

हम-नफ़स मुतलक़ भी तूफ़ान-ए-आलम का ग़म नहीं
बहर की हर मौज को साहिल बना सकता हूँ मैं

बख़्श दी हैं इश्क़ ने इस दर्जा मुझ को हिम्मतें
ज़ख़्म खा कर दिल पे 'क़ैसर' मुस्कुरा सकता हूँ मैं