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आते जाते लोग हमें क्यूँ दोस्त पुराने लगते हैं | शाही शायरी
aate jate log hamein kyun dost purane lagte hain

ग़ज़ल

आते जाते लोग हमें क्यूँ दोस्त पुराने लगते हैं

कविता किरन

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आते जाते लोग हमें क्यूँ दोस्त पुराने लगते हैं
चाहत की इस हद पर यारब हम तो दिवाने लगते है

सुनने वाला कोई अगर होता कहते दिल की बातों को
उस के बिना तो आज अधूरे अपने फ़साने लगते हैं

फिर से बहारें ले कर आई महकी हुई सी यादों को
आ भी जाओ अब मिलने के अच्छे बहाने लगते हैं

दिल करता है फिर से देखूँ खोए हुए उस मंज़र को
प्यासी आँखो को वो नज़ारे कितने सुहाने लगते हैं

ख़ुशबू वही है रंग वही है आज वफ़ा के फूलों का
आप क्या आए फिर से चमन में दिन वो पुराने लगते हैं

टूटी हुई सी एक 'किरन' है काफ़ी अँधेरे वालों को
घर में उजाला ढूँढने वाले घर को सजाने लगते है