EN اردو
आते आते तर्फ़ मेरे मुड़ के फिर कीधर चले | शाही शायरी
aate aate tarf mere muD ke phir kidhar chale

ग़ज़ल

आते आते तर्फ़ मेरे मुड़ के फिर कीधर चले

मिर्ज़ा अज़फ़री

;

आते आते तर्फ़ मेरे मुड़ के फिर कीधर चले
जान-साहब! बिन तुम्हारे खा के ग़म हम मर चले

सज्दे दे नाघिसनियाँ करते हैं तुम सुनते नहीं
जो न करनी थी समाजत वो भी कर अक्सर चले

आदमी से बुत कहाये अब ख़ुदाई का है अज़्म
टुक करो इंसाफ़ अपनी हद से तुम बाहर चले

देख लेवेंगे गुज़ारे के तईं अब और जा
देखा भारी पथर उस को चूम सर से धर चले

आशिक़ों ने नाम तेरा ले किया क़ालिब तही
मरते मरते भी तो तेरा ही ये सब दम भर चले

बज़्म में तुम खुल रहे थे बैठे देख हम को रुक गए
गर यूँ ही राज़ी हो लो जी उठ हम अपने घर चले

किस के आए किस से रंग-रलियाँ किया प्यार और चाह
इश्क़ की बदनामी प्यारे रख के मुझ ऊपर चले

ख़िज़्र को शाबाश उकताया न अब तक और हम
ज़िंदगानी एक दम भर की भी कर दूभर चले

आह-ओ-अफ़्ग़ाँ तो हमारा कर रहा है ज़ोर-शोर
जूँ बगूला या हो आँधी या कोई सरसर चले

देखें किस की आह का उस पर असर हो 'अज़फ़री'
हम तो भर मक़्दूर, कर कितना ही शोर-ओ-शर चले