आता हूँ जब उस गली से सौ सौ ख़्वारी खींच कर
फिर वहीं ले जाए मुझ को बे-क़रारी खींच कर
पहुँचा है अब तो निहायत को हमारा हाल-ए-ज़ार
ला उसे जिस-तिस तरह तासीर-ए-ज़ारी खींच कर
कोह-ए-ग़म रखती है दिल पर इस ख़िराम-ए-नाज़ से
ख़ज्लत-ए-रफ़्तार-ए-कब्क-ए-कोहसारी खींच कर
किस के शोर-ए-इश्क़ से यूँ रोता रहता है सदा
नाला ओ फ़रियाद ये अब्र-ए-बहारी खींच कर
बाँधूँ हूँ वारस्तगी का दिल में अपने जब ख़याल
बाँध ले जाएँ हमें ज़ुल्फ़ें तुम्हारी खींच कर
कल जो तू घर से न निकला उठ गया कर के दुआ
सुब्ह से ता-शाम मैं क्या इंतिज़ारी खींच कर
गालियाँ दे मार ले या क़त्ल कर मुख़्तार है
लाई अब तो याँ मुझे बे-इख़्तियारी खींच कर
साक़िया पैहम पिला दे मुझ को माला-माल जाम
आया हूँ याँ मैं अज़ाब-ए-होशयारी खींच कर
'हसरत' उस की बज़्म के जाने से रख मुझ को मुआफ़
मुफ़्त में रोएगा वाँ से शर्मसारी खींच कर
ग़ज़ल
आता हूँ जब उस गली से सौ सौ ख़्वारी खींच कर
हसरत अज़ीमाबादी