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आसूदगान-ए-हिज्र से मिलने की चाह में | शाही शायरी
aasudgan-e-hijr se milne ki chah mein

ग़ज़ल

आसूदगान-ए-हिज्र से मिलने की चाह में

आबिद मलिक

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आसूदगान-ए-हिज्र से मिलने की चाह में
कोई फ़क़ीर बैठा है सहरा की राह में

फिर यूँ हुआ कि शौक़ से खोली न मैं ने आँख
इक ख़्वाब आ गया था मिरी ख़्वाब-गाह में

इस बार कितनी देर यहाँ हूँ ख़बर नहीं
आ तो गया हूँ फिर से तिरी बारगाह में

फिर कार-ए-ज़िंदगी ने मुझे छोड़ना नहीं
कुछ दिन यहीं गुज़ार लूँ अपनी पनाह में

यारों ने आ के जान बचाई मिरी कि मैं
ख़ुद से उलझ पड़ा था यूँही ख़्वाह-मख़ाह मैं