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आसमाँ-ज़ाद ज़मीनों पे कहीं नाचते हैं | शाही शायरी
aasman-zad zaminon pe kahin nachte hain

ग़ज़ल

आसमाँ-ज़ाद ज़मीनों पे कहीं नाचते हैं

अहमद सग़ीर सिद्दीक़ी

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आसमाँ-ज़ाद ज़मीनों पे कहीं नाचते हैं
हम वो पैकर हैं सर-ए-अर्श-ए-बरीं नाचते हैं

अपना ये जिस्म थिरकता है बस अपनी धुन पर
हम कभी और किसी धुन पे नहीं नाचते हैं

अपने रंगों को तमाशे का कोई शौक़ नहीं
मोर जंगल में ही रहते हैं वहीं नाचते हैं

तन के डेरे में है जाँ मस्त क़लंदर की तरह
वाहिमे थक के जो रुकते हैं यक़ीं नाचते हैं

कब से इक ख़्वाब है आँखों में कि ताबीर भी है
उस में गाते हैं मकाँ और मकीं नाचते हैं