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आसमाँ तुझ से किनारा कहीं करना है मुझे | शाही शायरी
aasman tujhse kinara kahin karna hai mujhe

ग़ज़ल

आसमाँ तुझ से किनारा कहीं करना है मुझे

शहज़ाद रज़ा लम्स

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आसमाँ तुझ से किनारा कहीं करना है मुझे
थक गया उड़ते हुए आज उतरना है मुझे

अपने ज़ख़्मों की हवा दी है किसी साहिल को
अपने अश्कों से समुंदर कोई भरना है मुझे

चाँद की नाव हुई रात के सैलाब में ग़र्क़
फिर से सूरज की किरन बन के उभरना है मुझे

याद आता है बिखर जाना मिरी हस्ती का
और उस ज़ुल्फ़ का कहना कि सँवरना है मुझे

अब ये लगता है कि मैं ख़ुद में सिमट आया हूँ
आ के छू ले कि फिर इक बार बिखरना है मुझे