आसमाँ मिल न सका धरती पे आया न गया
ज़िंदगी हम से कोई ठौर बनाया न गया
आसमां मुझ से मियाँ हुजरे में लाया न गया
शाइरी छोड़ दी मफ़्हूम चुराया न गया
नौकरी की, लिखी नज़्में, सुकूँ पाया न गया
शहर-ए-दिल तुझ को किसी तौर बसाया न गया
घर की वीरानियाँ रुस्वा हुईं बेकार में ही
मुझ से बाज़ार में भी वक़्त बिताया न गया
जोश में ढा तो दी रिश्ते की इमारत लेकिन
दोनों से आज तलक मलबा हटाया न गया
ख़ून के दाग़ न आ जाएँ मिरे लहजे में
इस लिए ग़ज़लों को अख़बार बनाया न गया
दिख न जाए तू बिछड़ती हुई बस इस डर से
मुझ से आँखों को कोई ख़्वाब दिखाया न गया
अपना हिस्सा भी तो माँगा है ज़मीं से मैं ने
आसमां यूँ ही मिरे सर पे गिराया न गया
जो तिरी याद के पंछी न रुके क्या है अजब
उम्र भर दिल में तो तुझ को भी बिठाया न गया
ज़ात मज़हब कि ज़बाँ नाम उसी के तो हैं सब
ख़ुद को जिस क़ैद से ता-उम्र छुड़ाया न गया
ख़ाक दरिया के किनारों को मिलाऊँगा मैं
ख़ुद को ही आज तलक ख़ुद से मिलाया न गया
मेरा ईमान हुआ ख़र्च जिसे पाने में
क्या ग़ज़ब होगा जो उस शय को बचाया न गया
ग़ज़ल
आसमाँ मिल न सका धरती पे आया न गया
इमरान हुसैन आज़ाद