आसमाँ को ज़मीं बनाते हैं
हम गुमाँ को यक़ीं बनाते हैं
हो जहाँ साकिनान-ए-शहर-ए-वफ़ा
आशियाँ हम वहीं बनाते हैं
महव-ए-ग़फ़लत हैं अहल-ए-दुनिया सब
आख़िरत अहल-ए-दीं बनाते हैं
वो तो अहल-ए-नज़र बिला-शक है
हम जिसे हम-नशीं बनाते हैं
हम नगीं-साज़ तो नहीं लेकिन
कंकरों को नगीं बनाते हैं
अक़्ल-ओ-इल्म-ओ-हुनर के साँचे में
ज़िंदगी ख़ुद हमीं बनाते हैं
क़ातिलों और बे-ईमानों को
अपना हाकिम नहीं बनाते
बुग़्ज़-ओ-कीना हसद ग़ुरूर-ओ-निफ़ाक़
आदमी को लईं बनाते हैं
फ़ासलों और सरहदों की सदा
दिल के रिश्ते क़रीं बनाते हैं
तुम तो 'आरिफ़' बड़े ही अहमक़ हो
रेत के घर कहीं बनाते हैं

ग़ज़ल
आसमाँ को ज़मीं बनाते हैं
सय्यद मोहम्मद असकरी आरिफ़