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आसमाँ गर्दिश में था सारी ज़मीं चक्कर में थी | शाही शायरी
aasman gardish mein tha sari zamin chakkar mein thi

ग़ज़ल

आसमाँ गर्दिश में था सारी ज़मीं चक्कर में थी

अतीक़ मुज़फ़्फ़रपुरी

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आसमाँ गर्दिश में था सारी ज़मीं चक्कर में थी
ज़लज़ले के क़हर की तस्वीर हर मंज़र में थी

आपसी टकराव ने आख़िर नुमायाँ कर दिया
एक चिंगारी जो बरसों से दबी पत्थर में थी

मैं अकेला मर रहा था घर मिरा सुनसान था
रौनक़-ए-ख़ाना रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी दफ़्तर में थी

कर दिया था बेवगी के कर्ब ने गरचे निढाल
जलती-बुझती आँच सी इक बर्फ़ की चादर में थी

एक ही फ़िक़रे ने सारा जिस्म छलनी कर दिया
धार ऐसी तंज़िया अल्फ़ाज़ के ख़ंजर में थी

ख़ुद-नुमाई कम-लिबासी सब ने मिल कर छीन ली
क़ातिलाना इक अदा जो हुस्न के तेवर में थी

रोक लेती जो परिंदे को क़फ़स में ऐ 'अतीक़'
आरज़ू ऐसी न कोई भी दिल-ए-मुज़्तर में थी