आसमाँ एक किनारे से उठा सकती हूँ
यानी तक़दीर सितारे से उठा सकती हूँ
अपने पाँव पे खड़ी हूँ तुझे क्या लगता था
ख़ुद को बस तेरे सहारे से उठा सकती हूँ
आँखें मुश्ताक़ हज़ारों हैं मगर सोच के रख
तेरी तस्वीर नज़ारे से उठा सकती हूँ
राख हो जाए मोहब्बत की हवेली पल में
इक तबाही मैं शरारे से उठा सकती हूँ
मैं अगर चाहूँ तो जीने की इजाज़त दे कर
ज़िंदगी तुझ को ख़सारे से उठा सकती हूँ
इस्म पढ़ने का इरादा हो तो फ़ुर्सत में 'सहर'
मैं तुझे दिल के शुमारे से उठा सकती हूँ
ग़ज़ल
आसमाँ एक किनारे से उठा सकती हूँ
सिदरा सहर इमरान