आश्नाई ही सही अपनी तलब कोई तो हो
इस दयार-ए-ग़ैर में भी हम-नसब कोई तो हो
शोर घर तक आ गया है कूचा-ओ-बाज़ार का
कुछ तो ऐसा हो यहाँ पे मोहर-ए-लब कोई तो हो
कर्ब-ए-तन्हाई लिए आख़िर कहाँ तक जाइए
हादिसा ही हो अगरचे बे-सबब कोई तो हो
साज़ के टूटे हुए तारों को फिर से जोड़िए
नग़्मा-ए-ख़ुश-रंग या सोज़-ए-तरब कोई तो हो
शाख़ से टूटे हुए पत्ते बहुत मायूस हैं
एक चिंगारी सही उन का भी अब कोई तो हो

ग़ज़ल
आश्नाई ही सही अपनी तलब कोई तो हो
ख़ालिद जमाल