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आश्ना कितना ज़बाँ को बे-ज़बानी से किया | शाही शायरी
aashna kitna zaban ko be-zabani se kiya

ग़ज़ल

आश्ना कितना ज़बाँ को बे-ज़बानी से किया

जावेद शाहीन

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आश्ना कितना ज़बाँ को बे-ज़बानी से किया
ज़िंदगी करने को क्या कुछ ज़िंदगानी से किया

मौसम-ए-गुल में किया मल्बूस बनने का अमल
बे-लिबासी का अमल बर्ग-ए-ख़िज़ानी से किया

कौन है वो जिस ने बंजर ख़ुश्क ख़ित्तों का इलाज
देखते ही देखते इक सादा पानी से किया

सुब्ह के जागे मसाफ़त से थके दरिया ने फिर
शाम होते ही तअल्लुक़ कम रवानी से किया

ये वही था कैसे पहचाना उसे मुद्दत के ब'अद
मैं ये पल भर में उसी की इक निशानी से किया

रोग थी 'शाहीं' ज़मीं की तंगी-ए-पैहम मुझे
ये मुदावा मैं ने बस नक़्ल-ए-मकानी से किया