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आशिक़ी के आश्कारे हो चुके | शाही शायरी
aashiqi ke aashkare ho chuke

ग़ज़ल

आशिक़ी के आश्कारे हो चुके

यासीन अली ख़ाँ मरकज़

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आशिक़ी के आश्कारे हो चुके
हुस्न-ए-यकता के पुकारे हो चुके

उठ गया पर्दा जो फ़ी-माबैन था
मन्न-ओ-तू के थे इशारे हो चुके

है बहार-ए-गुलशन-ए-दुनिया दो रोज़
बुलबुल-ओ-गुल के नज़ारे हो चुके

चल दिए उठ कर जहाँ चाहे वहाँ
एक रंगी के सहारे हो चुके

यास से कह देंगे वक़्त-ए-क़त्ल हम
हम तो ऐ प्यारे तुम्हारे हो चुके

वासिल-ए-दरिया जो क़तरा हो गया
ग़ैरियत के थे पुकारे हो चुके

गुलशन-ए-हस्ती में देखी थी बहार
औज पर जो थे सितारे हो चुके

वर्ता-ए-दरिया का ग़म जाता रहा
ग़ोता खाते थे किनारे हो चुके

नेक-ओ-बद से तुम को 'मरकज़' क्या ग़रज़
दूर दुश्मन थे तुम्हारे हो चुके