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आशिक़ सा बद-नसीब कोई दूसरा न हो | शाही शायरी
aashiq sa bad-nasib koi dusra na ho

ग़ज़ल

आशिक़ सा बद-नसीब कोई दूसरा न हो

हफ़ीज़ जालंधरी

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आशिक़ सा बद-नसीब कोई दूसरा न हो
माशूक़ ख़ुद भी चाहे तो उस का भला न हो

है मुद्दआ-ए-इश्क़ ही दुनिया-ए-मुद्दआ
ये मुद्दआ न हो तो कोई मुद्दआ न हो

इबरत का दर्स है मुझे हर सूरत-ए-फ़क़ीर
होता है ये ख़याल कोई बादशाह न हो

पायान-ए-कार मौत ही आई ब-रू-ए-कार
हम को तो वस्ल चाहिए कोई बहाना हो

मेरे अज़ीज़ मुझ को न छोड़ेंगे क़ब्र तक
ऐ जान इंतिज़ार न कर तू रवाना हो

काबे को जा रहा हूँ निगह सू-ए-दैर है
हिर-फिर के देखता हूँ कोई देखता न हो

हाँ ऐ 'हफ़ीज़' छेड़ता जा नग़्मा-ए-हयात
जब तक तिरा रुबाब-ए-सुख़न बे-सदा न हो