आशिक़ की जान जाती है इस बाँकपन को छोड़
ऐ बुत ख़ुदा के वास्ते अपने चलन को छोड़
बुलबुल न रहम आएगा सय्याद को कभी
है जान अगर अज़ीज़ तो तू इस चमन को छोड़
उस का यही तरीक़ रहा आशिक़ों के साथ
ऐ दिल बस अब शिकायत-ए-चर्ख़-ए-कुहन को छोड़
सहरा की सम्त पाँव बढ़े जाते हैं दिल आ
वहशत पुकारती है कि हुब्बुलवतन को छोड़
बसने को चल तू दश्त-ए-ख़िज़ाँ-दीदा में 'शबाब'
गुलज़ार में बहार-ए-गुल-ओ-नस्तरन को छोड़
ग़ज़ल
आशिक़ की जान जाती है इस बाँकपन को छोड़
शबाब