EN اردو
आशिक़ की जान जाती है इस बाँकपन को छोड़ | शाही शायरी
aashiq ki jaan jati hai is bankpan ko chhoD

ग़ज़ल

आशिक़ की जान जाती है इस बाँकपन को छोड़

शबाब

;

आशिक़ की जान जाती है इस बाँकपन को छोड़
ऐ बुत ख़ुदा के वास्ते अपने चलन को छोड़

बुलबुल न रहम आएगा सय्याद को कभी
है जान अगर अज़ीज़ तो तू इस चमन को छोड़

उस का यही तरीक़ रहा आशिक़ों के साथ
ऐ दिल बस अब शिकायत-ए-चर्ख़-ए-कुहन को छोड़

सहरा की सम्त पाँव बढ़े जाते हैं दिल आ
वहशत पुकारती है कि हुब्बुलवतन को छोड़

बसने को चल तू दश्त-ए-ख़िज़ाँ-दीदा में 'शबाब'
गुलज़ार में बहार-ए-गुल-ओ-नस्तरन को छोड़