आशिक़ जो इस गली का भी मर कर चला गया
दुनिया से एक और क़लंदर चला गया
ग़ुर्बत का अपने हाल तुझे और क्या कहूँ
इक दिन तो इक फ़क़ीर भी उठ कर चला गया
फ़िरऔन अपने दौर का ज़िंदा है आज भी
दुनिया समझ रही थी सितमगर चला गया
चाक़ू पे है निशान किसी बे-गुनाह का
क़ातिल तो हाथ में लिए ख़ंजर चला गया
वो तिनका जोड़ कर के नशेमन जो था बना
बस्ती की आग में वो मिरा घर चला गया
उम्मीद कर चुका था नए साल से बहुत
इक और ज़ख़्म दे के दिसम्बर चला गया
लैला से जो मिला था वो पत्थर लिए हुए
'जाँबाज़' अपने शहर से बाहर चला गया

ग़ज़ल
आशिक़ जो इस गली का भी मर कर चला गया
ख़ान जांबाज़