आशिक़-ए-हक़ हैं हमीं शिकवा-ए-तक़दीर नहीं
पेच-ए-क़िस्मत का कम-अज़-ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर नहीं
बस कि आहों से असीरों के बहे लख़्त-ए-जिगर
बे-नगीं आज कोई ख़ाना-ए-ज़ंजीर नहीं
कुश्तनी पास तो आ जाए मगर तेरे पास
नेज़ा-ओ-तीर ही है दश्ना-ओ-शमशीर नहीं
सब के इस उम्र में हो जाते हैं ऐसे ही हवास
तुझ से कुछ शिकवा हमें ऐ फ़लक-ए-पीर नहीं
घर की वीरानी को क्या रोऊँ कि ये पहले से
तंग इतना है कि गुंजाइश-ए-ता'मीर नहीं
आदमियत नहीं तुझ में ये अदू की है ग़रज़
यूँ परी कहने में माना तिरी तहक़ीर नहीं
जुम्बिश अबरू को है लेकिन नहीं आशिक़ पे निगाह
तुम कमाँ क्यूँ लिए फिरते हो अगर तीर नहीं
हिम्मत-ए-मुर्ग़-ए-सहर-ख़्वाँ का हूँ क़ाइल कि उसे
नाले से ज़मज़मा मक़्सूद है तासीर नहीं
अपने उस्ताद के अंदाज़ पे मेरा है कलाम
मुझ को 'नाज़िम' हवस-ए-पैरवी-ए-'मीर' नहीं
ग़ज़ल
आशिक़-ए-हक़ हैं हमीं शिकवा-ए-तक़दीर नहीं
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम