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आस ही से दिल में पैदा ज़िंदगी होने लगी | शाही शायरी
aas hi se dil mein paida zindagi hone lagi

ग़ज़ल

आस ही से दिल में पैदा ज़िंदगी होने लगी

नज़ीर बनारसी

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आस ही से दिल में पैदा ज़िंदगी होने लगी
शम्अ जलने भी न पाई रौशनी होने लगी

इंतिहा-ए-इश्क़ है कैसी जफ़ा कैसा गिला
अब तो उन की हर ख़ुशी अपनी ख़ुशी होने लगी

रोक अपना हाथ रोक अब ऐ जुनून-ए-जामा-दर
हुस्न-ए-पर्दा-दार की पर्दा-दरी होने लगी

उलझी उलझी साँस घबराई नज़र बहके क़दम
ऐ निगार-ए-मस्त दुनिया दूसरी होने लगी

चाँद मेरा कहकशाँ मेरी गुल-ओ-ग़ुंचा मिरे
तुम मिरे होने लगे दुनिया मिरी होने लगी

डूबे तारे झिलमिलाई शम्अ शबनम रो पड़ी
इंतिज़ार-ए-सुब्ह था लो सुब्ह भी होने लगी

सोज़-ए-दिल से रौशनी होने लगी दिल में 'नज़ीर'
इश्क़ की दुनिया भी दुनिया हुस्न की होने लगी