आस ही से दिल में पैदा ज़िंदगी होने लगी
शम्अ जलने भी न पाई रौशनी होने लगी
इंतिहा-ए-इश्क़ है कैसी जफ़ा कैसा गिला
अब तो उन की हर ख़ुशी अपनी ख़ुशी होने लगी
रोक अपना हाथ रोक अब ऐ जुनून-ए-जामा-दर
हुस्न-ए-पर्दा-दार की पर्दा-दरी होने लगी
उलझी उलझी साँस घबराई नज़र बहके क़दम
ऐ निगार-ए-मस्त दुनिया दूसरी होने लगी
चाँद मेरा कहकशाँ मेरी गुल-ओ-ग़ुंचा मिरे
तुम मिरे होने लगे दुनिया मिरी होने लगी
डूबे तारे झिलमिलाई शम्अ शबनम रो पड़ी
इंतिज़ार-ए-सुब्ह था लो सुब्ह भी होने लगी
सोज़-ए-दिल से रौशनी होने लगी दिल में 'नज़ीर'
इश्क़ की दुनिया भी दुनिया हुस्न की होने लगी
ग़ज़ल
आस ही से दिल में पैदा ज़िंदगी होने लगी
नज़ीर बनारसी