आरज़ूओं के धड़कते शहर जल कर रह गए
कैसे कैसे हश्र ख़ामोशी में ढल कर रह गए
ख़ातिर-ए-ख़स्ता का अब कोई नहीं पुर्सान-ए-हाल
कितने दिलदारी के उन्वान थे बदल कर रह गए
अब कहाँ अहद-ए-वफ़ा की पासदारी अब कहाँ
जो हक़ाएक़ थे वो अफ़्सानों में ढल कर रह गए
अब कहाँ वो साहिलों से सैर-ए-तूफ़ान-ए-हयात
अब तो वो साहिल तलातुम में बदल कर रह गए
हासिल-ए-ग़म या ग़म-ए-हासिल मयस्सर कुछ नहीं
ज़िंदगानी के सभी अस्बाब जल कर रह गए
हाए वो ग़म जो बयाँ की हद में आ सकते न थे
क़ैद-ए-अश्क-ओ-आह से आगे निकल कर रह गए
अल-अमाँ हालात की महशर-ख़िरामी अल-अमाँ
डगमगाए इस क़दर गोया सँभल कर रह गए
रह गया हूँ एक मैं तन्हा हुजूम-ए-बर्क़ में
हम-नवा सारे चमन के साथ जल कर रह गए
बन तो सकते थे वो तूफ़ान-ए-क़यामत-ख़ेज़ भी
जो धड़कते वलवले अश्कों में ढल कर रह गए
एक वो हैं डालते हैं माह-ओ-अंजुम पर कमंद
और इक हम हैं कि ख़्वाबों से बहल कर रह गए
जिन को हासिल था ज़माने में सुकून-ए-इज़्तिराब
अपने ही एहसास के शो'लों में जल कर रह गए
जिन की ख़ामोशी थी मशहूर-ए-ज़माना ऐ 'सलाम'
आज उन के मुँह से भी शिकवे निकल कर रह गए

ग़ज़ल
आरज़ूओं के धड़कते शहर जल कर रह गए
ऐन सलाम