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आरज़ूएँ सब ख़ाक हुईं | शाही शायरी
aarzuen sab KHak huin

ग़ज़ल

आरज़ूएँ सब ख़ाक हुईं

साजिद हमीद

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आरज़ूएँ सब ख़ाक हुईं
साँसें आख़िर चाक हुईं

मंज़र मंज़र ख़ुशबूएँ
पल में जल कर राख हुईं

देख के मुर्दा लफ़्ज़ों को
सोचें भी नमनाक हुईं

पिछले पहर जो उभरी थीं
आवाज़ें ख़ाशाक हुईं

रौशन हैं सपनों के अलाव
अब रातें बेबाक हुईं

तेरे बदन की शबनम से
नज़रें धुल कर पाक हुईं

तन्हाई पा कर यादें
'साजिद' हफ़्त-अफ़्लाक हुईं