आरज़ू थी कि तिरा दहर भी शोहरा होवे 
तेरी निस्बत से ग़ज़ल हम-सर-ए-ज़ोहरा होवे 
कौन देता है मुझे ख़्वाब की मशअ'ल हर आन 
आस बन कर न वही क़ल्ब में ठहरा होवे 
ये न मेहमान-सरा है न हवस का कूचा 
दिल में वो शख़्स बसे आ के जो गहरा होवे 
मौजा-ए-वक़्त में रू-पोश है वो माह-ए-तमाम 
चाँदनी होवे जहाँ याद का बजरा होवे 
धुँद ही धुँद नज़र आया जिधर भी देखा 
मेरी दुनिया मिरे अरमाँ का न चेहरा होवे 
दिल के आँगन में कोई आ के न जाए वापस 
इस इलाक़ा में अगर इश्क़ का पहरा होवे 
उस की तस्वीर में यूँ रंग-ए-अलामत रखियो 
वो कहीं नूर कहीं फूल का गजरा होवे 
इतनी तासीर तो फ़रियाद की क़िस्मत हो 'नईम' 
हाकिम-ए-वक़्त बदल जाए जो बहरा होवे
        ग़ज़ल
आरज़ू थी कि तिरा दहर भी शोहरा होवे
हसन नईम

