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आरज़ू तदबीर हो कर रह गई | शाही शायरी
aarzu tadbir ho kar rah gai

ग़ज़ल

आरज़ू तदबीर हो कर रह गई

कृष्ण मोहन

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आरज़ू तदबीर हो कर रह गई
जुस्तुजू ताख़ीर हो कर रह गई

सर्द सन्नाटा मुसल्लत हो गया
बे-हिसी ज़ंजीर हो कर रह गई

सोच की आवाज़ कितनी तेज़ है
ख़ामुशी तक़रीर हो कर रह गई

जब भी की तहरीर अपनी दास्ताँ
तेरी ही तस्वीर हो कर रह गई

काट है अल्फ़ाज़ की कितनी शदीद
गुफ़्तुगू शमशीर हो कर रह गई

आह ये दिन रैन की बेचैन सोच
जो मिरी तक़दीर हो कर रह गई

सैद-ए-तख़रीब-ए-ख़िरद है ज़िंदगी
हसरत-ए-तामीर हो कर रह गई

हर्फ़-ए-संजीदा थी रूदाद-ए-ख़िरद
कितनी बे-तासीर हो कर रह गई

अहद-ए-हाज़िर की किताबी शाइरी
फ़िक्र की जागीर हो कर रह गई

मेरे फ़िक्र-ओ-फ़न की अज़्मत आख़िरश
शोख़ी-ए-तहरीर हो कर रह गई

'कृष्ण' मोहन ख़्वाब की ताबीर भी
दर्द की तफ़्सीर हो कर रह गई