EN اردو
आरज़ू-ए-दिल-ए-नाकाम से डर लगता है | शाही शायरी
aarzu-e-dil-e-nakaam se Dar lagta hai

ग़ज़ल

आरज़ू-ए-दिल-ए-नाकाम से डर लगता है

अज़ीज़ बदायूनी

;

आरज़ू-ए-दिल-ए-नाकाम से डर लगता है
ज़िंदगानी तिरे पैग़ाम से डर लगता है

फिर किसी जज़्बा-ए-गुम-नाम से डर लगता है
हुस्न-ए-मा'सूम पे इल्ज़ाम से डर लगता है

शीशा-ए-दिल पे कोई ठेस न लगने पाए
तल्ख़ी-ए-मय से नहीं जाम से डर लगता है

जिस को आग़ाज़-ए-मोहब्बत का नहीं है एहसास
बस उसे इश्क़ के अंजाम से डर लगता है

वक़्त के साथ बदल जाती हैं क़द्रें हमदम
राह-ए-पुर-ख़ार में आराम से डर लगता है

जिस ने तूफ़ान-ए-बला-ख़ेज़ का मुँह तोड़ दिया
क्यूँ उसे गर्दिश-ए-अय्याम से डर लगता है

देख कर क़स्र-ए-तमन्ना की तबाही शायद
गुलशन-ए-दिल के दर-ओ-बाम से डर लगता है

मेहर-ए-ताबाँ की क़सम गेसू-ए-जानाँ की क़सम
सुब्ह-ए-नौ तुझ से नहीं शाम से डर लगता है

सिर्फ़ अल्लाह से डरती है 'अज़ीज़'-ए-ख़स्ता
क्या उसे तल्ख़ी-ए-अय्याम से डर लगता है