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आरिज़ से तिरे बहार मक़्सूद | शाही शायरी
aariz se tere bahaar maqsud

ग़ज़ल

आरिज़ से तिरे बहार मक़्सूद

किशन कुमार वक़ार

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आरिज़ से तिरे बहार मक़्सूद
है ख़त से ब-नक़्शा-ज़ार मक़्सूद

उड़ उड़ के ग़ुबार-ए-आशिक़ आया
कूचा में जो था मज़ार मक़्सूद

का'बे से ग़ज़ाल कूदता आए
हो उन का अगर शिकार मक़्सूद

गेसू से ग़रज़ है ख़ास कर लैल
रुख़्सार से है नहार मक़्सूद

नर्गिस है चमन की दीदा-ए-शौक़
है आप का इंतिज़ार मक़्सूद

दिल की न कली शगुफ़्ता होगी
गुल से न रखे हज़ार मक़्सूद

दाग़ों का 'वक़ार' सीना मुश्ताक़
है कोह का लाला-ज़ार मक़्सूद