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'आरिफ़' अज़ल से तेरा अमल मोमिनाना था | शाही शायरी
aarif azal se tera amal mominana tha

ग़ज़ल

'आरिफ़' अज़ल से तेरा अमल मोमिनाना था

आरिफ़ अब्दुल मतीन

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'आरिफ़' अज़ल से तेरा अमल मोमिनाना था
हाँ ग़म ये था कि फ़िक्र का ढब काफ़िराना था

तू मुझ से दूर रह के भी मेरे क़रीब था
हर चंद तू ख़ुदा की तरह था ख़ुदा न था

तन्हाई-ए-बसीत का वो अहद याद कर
जब तेरे पास कोई भी तेरे सिवा न था

था ए'तिमाद-ए-हुस्न से तू इस क़दर तही
आईना देखने का तुझे हौसला न था

मैं ने किया है तुझ को तिरे रू-ब-रू मगर
खींच जाएगा मुझी से तू मुझ को पता न था

बख़्शा है तू ने मेरी वफ़ा को ख़ुद अपना रंग
वर्ना मिरी निगाह में कोई सिला न था

उम्र-ए-अज़ीज़ राह-नवर्दी में कट गई
मंज़िल ने दी ख़बर कि मुसाफ़िर चला न था

आई है गुल्सिताँ से मिरी सम्त किस लिए
जब नामा मेरे नाम कोई ऐ सबा न था

कुंज-ए-क़फ़स में सर-ब-गरेबाँ पड़ा हूँ मैं
'आरिफ़' चमन में कोई मिरा हम-नवा न था