आराइश-ए-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो
वो दर्द अब कहाँ जिसे जी चाहता भी हो
ये क्या कि रोज़ एक सा ग़म एक सी उमीद
इस रंज-ए-बे-ख़ुमार की अब इंतिहा भी हो
ये क्या कि एक तौर से गुज़रे तमाम उम्र
जी चाहता है अब कोई तेरे सिवा भी हो
टूटे कभी तो ख़्वाब-ए-शब-ओ-रोज़ का तिलिस्म
इतने हुजूम में कोई चेहरा नया भी हो
दीवानगी-ए-शौक़ को ये धुन है इन दिनों
घर भी हो और बे-दर-ओ-दीवार सा भी हो
जुज़ दिल कोई मकान नहीं दहर में जहाँ
रहज़न का ख़ौफ़ भी न रहे दर खुला भी हो
हर ज़र्रा एक महमिल-ए-इबरत है दश्त का
लेकिन किसे दिखाऊँ कोई देखता भी हो
हर शय पुकारती है पस-ए-पर्दा-ए-सुकूत
लेकिन किसे सुनाऊँ कोई हम-नवा भी हो
फ़ुर्सत में सुन शगुफ़्तगी-ए-ग़ुंचे की सदा
ये वो सुख़न नहीं जो किसी ने कहा भी हो
बैठा है एक शख़्स मिरे पास देर से
कोई भला सा हो तो हमें देखता भी हो
बज़्म-ए-सुख़न भी हो सुख़न-ए-गर्म के लिए
ताऊस बोलता हो तो जंगल हरा भी हो
ग़ज़ल
आराइश-ए-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो
नासिर काज़मी