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आपस में कोई रब्त का इम्कान भी न था | शाही शायरी
aapas mein koi rabt ka imkan bhi na tha

ग़ज़ल

आपस में कोई रब्त का इम्कान भी न था

महेर चंद काैसर

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आपस में कोई रब्त का इम्कान भी न था
दोनों तरफ़ ये मरहला आसान भी न था

चारागरों की पुर्सिश-ए-पैहम के बावजूद
मैं मुतमइन न था तो परेशान भी न था

पहलू बदल बदल के वो करता था गुफ़्तुगू
मैं सब समझ रहा था कि अंजान भी न था

बात उस की दिल में मेरे उतरती चली गई
वो अजनबी था और मिरा मेहमान भी न था

क्यूँ मुझ को मेज़बानी का मौक़ा न मिल सका
मैं इस क़दर तो बे-सर-ओ-सामान भी न था

वो कितना सर्द-मेहर था मालूम हो गया
वा'दा-ख़िलाफ़ हो के पशेमान भी न था

'कौसर' अमीर-ए-शहर से मिलने में उज़्र क्यूँ
कुछ फ़ाएदा नहीं था तो नुक़सान भी न था