आप पर जब से तबीअत आई
रोज़-ओ-शब मुझ पे क़यामत आई
हाए बर्बाद किया है क्या क्या
रास हम को न मोहब्बत आई
ऐ हवस-कार तिरी नज़रों में
कब भला मेरी हक़ीक़त आई
ज़िंदगी बीत गई है यूँही
जब भी आई शब-ए-फ़ुर्क़त आई
ज़ुल्म गो उस ने बहुत बार किए
लब पे मेरे न शिकायत आई
तेरी ख़ातिर से जहाँ को छोड़ा
फिर भी तुझ को न मोहब्बत आई
दिल-ए-बेताब है तड़पा क्या क्या
जब कभी याद वो सूरत आई
इन फ़सानों में जहाँ के अक्सर
कुछ नज़र मुझ को हक़ीक़त आई
आप मासूम बहुत थे पहले
आप को कब से शरारत आई
ऐ 'ज़की' इश्क़ के हाथों हम पर
जब भी आई तो मुसीबत आई
ग़ज़ल
आप पर जब से तबीअत आई
ज़की काकोरवी