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आप क्यूँ छेड़ते हैं दीपक राग | शाही शायरी
aap kyun chheDte hain dipak rag

ग़ज़ल

आप क्यूँ छेड़ते हैं दीपक राग

क़य्यूम नज़र

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आप क्यूँ छेड़ते हैं दीपक राग
शहर में लग रही है ख़ुद ही आग

उठ रहा है हरीम-ए-दिल से धुआँ
लुट रहा है सुहागनों का सुहाग

शो'ला-सामाँ हुई है तारीकी
कैसे जागे हैं रौशनी के भाग

जाने किस किस हवस को देंगे जनम
बोतलों के उड़ा चुके जो काग

लाग में थी कभी लगाव की शान
अब लबों में लगाव की है लाग

कफ़-ए-दरिया का देखिए अंजाम
बे-सबब लाइए न मुँह झाग

जाते लम्हे दुहाई देते हैं
नए अतवार के तरीक़ पे जाग

मुस्कुराता है खेत सरसों का
तोड़ती हैं जो गाँव वालियाँ साग

सरकण्डों में है केंचुली अटकी
कहीं लहरा के छुप गया है नाग

चाँद पर जो कमंद डालते हैं
मुझ से कहते हैं ज़िंदगी भी त्याग