आप को उस ने अब तराशा है
क़हर है ज़ुल्म है तमाशा है
उस को लेते बग़ल में डरता हूँ
नाज़ुकी में वो शीशा बाशा है
क्यूँ कहूँ अपने सीम-तन का हाल
गाह तोला है गाह माशा है
तिरे कूचे से उठ नहीं सकता
किस वफ़ा-कुश्ता का ये लाशा है
गर फ़रिश्ता भी हो 'हसन' तो वहाँ
गाली और झिड़की बे-तहाशा है
ग़ज़ल
आप को उस ने अब तराशा है
मीर हसन