आप की नज़रों में शायद इस लिए अच्छा हूँ मैं
देखता सुनता हूँ सब कुछ फिर भी चुप रहता हूँ मैं
इस लिए मुझ से ख़फ़ा रहती है अक्सर ये ज़मीं
आसमाँ को सर पे ले कर घूमता फिरता हूँ मैं
ख़ाक में मिलना ही अश्कों का मुक़द्दर है मगर
क्या ये कम है उस की पलकों पर अभी ठहरा हूँ मैं
ख़ार ही को हो मुबारक ख़ार की उम्र-ए-दराज़
गुल-सिफ़त हूँ बस जवाँ होते ही मर जाता हूँ मैं
बादलों को शायद इस का कोई अंदाज़ा नहीं
ऐन दरिया में हूँ लेकिन किस क़दर प्यासा हूँ मैं
ग़म-ज़दा दिल को सितम से दूर रखने के लिए
बारहा ख़ुद अपने ही दिल पर सितम ढाता हूँ मैं
क्यूँ वो मेरे सामने आने से डरता है 'वली'
ख़ामुशी फ़ितरत है मेरी एक आईना हूँ मैं
ग़ज़ल
आप की नज़रों में शायद इस लिए अच्छा हूँ मैं
वलीउल्लाह वली